Saturday, November 29, 2025

 

 

 

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                                             विजय को याद करते हुए एक साल                                                                                               

साहित्यकार और रंगकर्मी विजय गौड़ का देहावसान हुए एक वर्ष हो गया लेकिन इस एक वर्ष में उनकी स्मृतियों ने लोगों को खूब सताया है । उनके पहले स्मृति दिवस 21 नवंबर 2025 पूर्ति और पवि गौड़ की ओर से उनके घर पर आयोजित स्मृति सभा में लोगों ने कुछ ऐसी ही‌ भावनांए व्यक्त की थी। विजय की रचनात्मकता के विभिन्न सोपानों के साक्षी रहे उनके मित्रों ने इस बार उनके व्यक्तित्व की तुलना में कृतित्व की अधिक चर्चा की। विजय गौड़ बहुत आयामी प्रतिभा के धनी थे। शतरंज के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे और राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट में भाग लिया करते थे। वह एक अच्छे ट्रेकर भी थे और साल में एक बार पहाड़ों की दुर्गम स्थानों पर ट्रैकिंग पर निकल जाया करते थे। वह ‘ लिखो यहां वहां’ नाम से साहित्यिक ब्लाग भी चलाते थे। जो लाखों लोगों द्वारा देखी जा चुकी थी। स्मृति सभा में विजय की इन्हीं बहु आयामी कृतित्व की चर्चा की गयी। विजय के हम उम्र और एक तरह से साहित्य के सहपाठी रहे डा राजेश पाल और अरुण कुमार असफल ने उनके साथ मिल कर ‘ संवेदना’  की क‌ई महत्वपूर्ण गोष्ठियों का आयोजन किया था। दोनों ने विजय के साहित्यिक अवदान की चर्चा की। विजय की दुर्गम यात्राओं के साथी रहे सी एन मिश्रा ने विजय के साथ की गयी या‌त्राओं के संस्मरण साझा किये। उन्होंने बताया कि विजय ने उनके साथ मोटर साइकिल द्वारा भारत भ्रमण की योजना भी बनायी थी और वे तैयारियों में लग भी गये‌ थे । लेकिन वह अचानक ही अकेले निकल पड़े। 

 



 कथाकार नवीन कुमार नैथानी ने विजय के उत्साही स्वाभाव का स्मरण किया। उन्होंने बताया कि उन्हें जो काम करना होता था उसे शीघ्र पूरा करने के लिए वह अधीर रहते थे। वह एक साथ क‌ई रचनाओं पर काम करते थे। निधन से पूर्व वह दो उपन्यास एक साथ लिख रहे थे और दोनों ही उपन्यास शोधपरक थे। नवीन कुमार नैथानी ने पत्रकार साहित्यकार अरविंद शेखर के साथ मिलकर विजय के ब्लाग ‘लिखो यहां वहां' के पुन: आरंभ करने की भी सूचना दी। फिल्म विशेषज्ञ और लेखक मनमोहन चढ्ढा ने विजय के उपन्यास ‘ फांस’ की मनोयोग से चर्चा की। सभा में अमेरिका से आयीं जेनेटिक विज्ञानी और लेखिका सुषमा नैथानी और दिल्ली से आए वरिष्ठ लेखक सुरेश‌ उनियाल ने भी विजय की स्मृतियों को साझा किया। सभा में लोगों ने विजय गौड़ की अप्रकाशित और असंकलित रचनाओं का संकलन निकालने की इच्छा व्यक्त की।
स्मृति सभा में साहित्यकार कुसुम भट्ट, दिनेश चन्द्र जोशी, समदर्शी बड़थ्वाल, कविता कृष्णपल्लवी , अरविंद शेखर , चंद्रकला आदि ने‌ भी‌ अपनी बात रखी थी। सभा का संचालन वरिष्ठ कवि राजेश सकलानी ने किया।

(प्रस्तुति- अरुण कुमार ‘असफल’)

 

Friday, November 21, 2025

 

 

 

  कविता/    संग-साथ इक्कीस साल

 

 

 


(आज  इस ब्लॉग के संस्थापक विजय गौड़ को गये  एक साल बीत चला है. विजय को याद करते हुए हमारी कोशिश रहेगी कि फिर से इस ब्लॉग को नियमित रूप से जारी रख सकें.फिर से इस सिलसिले को शुरू करते हुए आज विजय की कविता लगा रहे हैं) 

-अरविन्द शेखर, नवीन कुमार नैथानी )

 

संग-साथ इक्कीस साल

 विजय गौड़ 

सबसे ज्यादा गुस्साया सिर्फ पत्नी पर 

डरते-डरते काट दिए उसने इक्कीस साल

 चाहा नहीं कभी मैंने पर, डरे वह हरदम

 गुस्साया यूँ आज तक जितना 

काश, गुस्सा पाया होता एक हिस्सा भी

 गोली, लाठी और बौछारों से 

बेदम कर देने वालें समाजद्रोहियों पर,

 अहंकार को मुँह चिढ़ाती मुस्कान पर

बना रहा शांत, कहलाया भला

 डराने भर को भी गुस्सा न पाया

 हरामियों पर इन इक्कीस सालों में। 

 

 

Sunday, September 29, 2024

विद्यासागर स्मृति सम्मान 2024

 



सादगी और सुरुचिपूर्ण तरह से सम्पन्न हुए विद्यासागर स्मृति सम्मान के कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार गुरदीप खुराना ने कहा कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्मृति में दिये जाने वाले महत्वपूर्ण सम्मान के लिए वर्ष 2024 सम्मान पंकज बिष्ट को दिया जाना उसे परम्परा का सम्मान है जिसका प्रतिनिधित्व नौटियाल जी की रचनाएं करती हैं। अध्यक्षीय वक्तव्य ज्ञापित करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि पंकज बिष्ट ने न सिर्फ अपने रचनात्मक लेखन से बल्कि आज के दौर में समयांतर जैसी महत्वपूर्ण को प्रकाशित कराते हुए भी अपनी उस भूमिका का लगातार निर्वाहन किया है जो उनकी सामजिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। आगे उन्होने कहा कि यह इस बात से भी दिखायी देता है कि समयांतर में लिखने वाले अन्य लेखक भी पंकज बिष्ट की तरह ही प्रतिबद्धता वाले लोग है।

रविवार को सेव हिमालय मूवमेंट एवं देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना की ओर से साहित्य के क्षेत्र का प्रतिष्ठित विद्यासागर नौटियाल स्मृति सम्मान -2024 प्राप्त करने के बाद पंकज बिष्ट ने कहा कि विद्यासागर नौटियाल ने अपनी राजनीतिक साहित्यिक प्रतिबद्धता कभी छिपाई नहीं। सम्मान ग्रहण करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिबद्धता क्या होती है यह मैने विद्यासागर नौटियाल से सीखा है।

प्रेस क्लब, देहरादून में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार इब्बार रब्बी ने कहा कि वे  पंकज बिष्ट को उनके लेखन के शुरुआती समय से जानते हैं और इसीलिए कह सकते हैं मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता पंकज बिष्ट के साहित्य का मूल स्वर है। उन्होंने यह भी कहा कि वे हमेशा से जानते हैं कि पंकज बिष्ट किसी भी सच को सामने लाने में उसी तरह खरे जैसे सच को अपनी रचनाओं का केंद्र बनाने में नौटियाल जी ने कभी संकोच नही किया।


पंकज बिष्ट के साहित्य पर विस्तृत टिप्पणी करते हुए डॉ. संजीव नेगी ने कहा कि पंकज बिष्ट की साहित्यिक दृष्टि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समेटे होती है और इसीलिए उनकी रचनाओं में जो समय दर्ज होता है उसका सीधा सम्बंध उदारीकरण से उपजी विसंगतियों, बाबरी विध्वंस और वैश्विक परिघटनाओं के साथ बना रहा। बच्चे गवाह नहीं हो सकते, पंद्रह जमा पचीस, टुंड्रा प्रदेश व अन्य कहानियों के साथ साथ उन्होंने पंकज बिष्ट के उपन्यास लेकिन दरवाजा, उस चिड़िया का नाम, पंखोंवाली नाव आदि से उद्धरणों के जरिए अपनी स्थापनाओं को रखा और बताया कि विद्यासागर नौटियाल जहां समष्टि की बात करते थे पंकज बिष्ट मनुष्य के भीतर की कहानी कहते हैं।

पहला विद्यासागर सम्मान 2017 में कथाकार सुभाष पंत को दिया गया था। एक अंतराल के बाद दूसरा सम्मान 2022 में कथाकार शेखर जोशी को दिया गया और तीसरा सम्मान वर्ष 2023 में डॉ. शोभा राम शर्मा को दिया गया था।

वर्ष 2024 के सम्मान के पांच सदस्य चयन समिति में वरिष्ठ कथाकार सुभाष पन्त, हम्माद फारुकी, धीरेन्द्र नाथ तिवारी, जितेंद्र भारती व राजेश पाल थे। चयन समिति ने सर्वानुमति से पंकज बिष्ट को उनके उल्लेखनीय लेखन के आधार पर इस सम्मान के लिए योग्य पाया। चयन समिति की ओर से वक्तव्य देते हुए साहित्यकार एवं संस्कृति कर्मी हम्माद फारुखी ने पंकज बिष्ट और विद्यासागर नौटियाल को एक समान विचार का कथाकार बताया। उन्होंने पंकज बिष्ट व उनके साहित्य का व्यापक परिचय दिया। और बताया कि किस तरह कुमाऊं के अल्मोड़ा , मुम्बई ,  भारत सरकार के सूचना सेवा विभाग के प्रकाशन विभाग में उपसंपादक व सहायक संपादक, योजना के अंग्रेजी सहायक सम्पादक, आकाशवाणी की समाचार सेवा में सहायक समाचार संपादक व संवाददाता, भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन में संवाद- लेखन करते हुए भी व साहित्यरत रहे हैं। उनके द्वारा संपादित समयांतर सबसे विचारपरक पत्रिकाओं में है।

पंकज बिष्ट जी ने अपने भाषण के दौरान एक दिलचस्प बात यह कही, कि जब लगता है सब कुछ लिखा जा चुका है और नया कुछ लिखने के लिए नहीं बचा तो पत्रकारिता में नयापन ढूंढना पड़ता है. यह कभी ना खत्म होने वाला स्रोत है. इस संदर्भ में उन्होंने अपनी पत्रिका समयांतर पर बात करते हुए बताया कि  समय पर पत्रिका निकालना और पाठकों तक पहुंचाना कितना श्रमसाध्य कार्य है. उन्होंने पत्रकारिता में कमिटमेंट, प्रतिबद्धता,और जनपक्षधर्ता जैसे तत्वों की अनिवार्यता पर अपने विचार रखे।

इस मौके पर सेव हिमालय मूवमेंट के संरक्षक जगदंबा रतूड़ी, राजीव नयन बहुगुणा, साहित्यकार जितेंद्र भारती, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, दिनेश जोशी, कृष्णा खुराना, कुसुम भट्ट, चंद्रनाथ मिश्र, अरुण कुमार असफल गढवाली के रचनाकार दैवेंद्र जोशी, मदन डुकलान, बीना बैंजवाल, कान्ता घिल्डियाल, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता समर भंडारी, सुरेंद्र सजवाण, संजीव घिल्डियाल, चंद्रकला, राजेंद्र गुप्ता समीर रतूड़ी, अंतरिक्ष नौटियाल, पंचशील, अनीता नौटियाल आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम के दौरान समय साक्ष्य, काव्यांश प्रकाशन, राहुल फाउंडेशन और गार्गी प्रकाशन वालों ने पुस्तक प्रदर्शनी भी लगायी।  

Sunday, June 16, 2024

यह कागज की कतरनों का खेल है

यूं तो अरविंद शर्मा की पहचान एक फोटोग्राफर की ही रही। साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां ही नहीं, रैली, जूलूस, धरने प्रदर्शन के फोटो खींचना ही उसका शौक भी रहा और रोजगार भी। उसके द्वारा खींची गई फोटो की खूबी रही कि फोटो में दिखाई दे रहे चेहरे को पहचानने के लिए आपको आंखों में जोर नहीं डालना पड़ेगा। चाहे तस्वीर किसी भीड़ की ही हो। अरविंद को भीड़ के बीच भी जिस किसी की तस्वीर खींचनी होती रही, उसे खींचने में शायद ही कभी चूका हो। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में इसीलिए जब वह अपना कैमरा कंधे पर लिये दिख जाता था तो पिछले दिन की तस्वीरों में अपना चेहरा छांट लेने वालों की भीड़ उसे थैला खोलकर तस्वीरें उनके हवाले कर देने के लिए मजबूर कर देती थी। अरविंद जानता था कि जिसे अपनी तस्वीर दिख जाएगी, ले ही लेगा। पैसे भी मिल ही जाएंगे। लेकिन कई बार ऐसा भी होता था कि तस्वीर वाले ने अपने से सम्बंधित तस्वीर तो रख ली लेकिन पैसे नहीं दिये। अरविंद के लिए लेकिन इस बात के कोई मायने नहीं रहे। वह तो उस वक्त भी फोटो खींचने में ही लगा रहता था। यानि नफे नुकसान की चिंता किये बगैर ही वह अपने काम में मशगूल रहता था। यह जानना दिल्चस्प है कि अरविंद को कैमरे के आईपीस में आंख धंसाकर फोटो लेने में असुविधा होती थी। क्योंकि उस तरह से ओबजेक्ट को फोकस करने में उसकी आंखें साथ नहीं दे पाती। उसका हुनर तो इसी बात का रहा कि दूरी का सही सही अंदाजा लगा वह कैमरे को सिर से भी ऊपर उठाकर एक दुरुस्त फोटो खींच लेता रहा।

अब कैमरा तो छोड़ दिया अरविंद भाई ने लेकिन भीतर बसी मानवीय आकृतियों को उकेरने के लिये कोलाज बनाये हैं। आप चाहें तो इन कोलाजों को फ्रेम करके अपने घर में लगा सकते हैं। अरविंद भाई को फोन करें, वे आपको कोलाज की डिजीटल कॉपी भेज देंगे। अरविंद भाई को मालूम है, पैसे मिल ही जाएंगे। न भी मिलें तो वे कोलाज बनाना बंद करने से तो रहे।         

यह कागज की कतरनों का खेल है, आप इन्हें पेंटिग भी मान सकते हैं। 






 

Friday, May 17, 2024

सम्वेदना का साहित्यिक योगदान और आज की चुनौतियां

लूट और प्रलोभन का रिश्ता इतना गहरा होता है कि यदि उसे देखना चाहें तो किसी एक जरिये से दूसरे तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन इस रिश्ते के बनने की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि प्रलोभनों {ज्ञात व अज्ञात} का अदृश्य परदा सोचने समझने और तर्क करने की क्षमता को ही कुंद कर देता है और इसीलिए लुटने वाले को पता ही नहीं लग पाता है कि वह लूटा जा चुका है।


साहित्य में लूट की स्थिति का आंकलन करें तो दिखाई देगा कि रचनात्मकता की लूट के अड्डे सिर्फ प्रकाशक और पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकीय विभाग ही नहीं हैं, बल्कि हर वह मंच भी हैं जो पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार के प्रलोभनों {ज्ञात वा अज्ञात} तक को सृजित करने में समर्थ हैं। रचनाकार ऐसे मंचों के आगे अपनी अपनी तरह से नतमस्तक है। इस हद तक कि वे मंच किस तरह सामर्थ्यवान हो जाते हैं, उनके पीछे की ताकत किन स्रोतों से हासिल है और क्यों वे पूंजी बहाते हैं, उस पर सवाल करने से भी बचने लगते हैं। लूट और प्रलोभनों की इन स्थितियों ने ही रचनाकारों को अपने मूल्य और प्रतिबद्धताओं से डिगाने का प्रपंच रचा हुआ है।         


हर रचनाकार के भीतर यह सहज महत्वाकांक्षा होती है कि उसकी रचना जन जन तक पहुंचे, सराही जाए और इस तरह से उसका रचनाकर्म एक सार्थक मानवीय गतिविधि का हिस्सा हो सके। लेकिन स्थितियां विकट हैं और उस विकटता के कारण समाज का पिछड़ापन भी एक महत्वपूर्ण कारक है। यह एक प्रचारित सत्य है कि कला-साहित्य सीधे सीधे किसी व्यक्ति विशेष के जीवन को मनुष्य द्वारा सृजित दूसरे संसाधनों की तरह सहज और समर्थ नहीं बनाता है। यही वजह है कि सर्वप्रथम कोई भी व्यक्ति पहले निजी जीवन की दूसरी आवश्यकताओं को अपनी पहुंच तक लाने की कोशिश करता है और फिर जब एक हद तक आधारभूत जरूरतों को पूरा कर लेता है तो तब अन्य भावनात्मक चीजों के प्रति कदम बढाता है। किसी भी भाषा के साहित्य को कमोबेश इस स्थिति का सामना करना ही पडता है। यदि साहित्य की समाज में पहुंच के साथ भारतीय समाज की आर्थिक स्थितियों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाए तो जरूर चौकाने वाले ऐसे खुलासे भी हो सकते हैं कि विभिन्न भाषा-भाषी समाज के अंतरसम्बंधों और विसंगतियों के कारण भी समझ आने लगेंगे।


प्रलोभनों की गिरफ्त में रहते हुए और लुट जाने की चिंताओं को दूर फटकते हुए ही चित्रकारी ने बाजारू होते जाने की सीमाएं लांघी है और संगीत की रवायतों ने पहले राजाश्रयी और बदलती दुनिया के साथ शासकीय ठियों और रुतबेदार ठिकानों को ही अंतिम मानने में कोई गुरेज नहीं की। इस प्रक्रिया को समझने के साथ साथ; कभी उसका प्रतिकार तो कभी उसे अंगीकार कर लेने का रास्ता एक हद तक अब भी साहित्य और रंगकर्म की दुनिया का ढब है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लूट और प्रलोभन की यह सतत प्रक्रिया ही कला साहित्य की दुनिया को कठिन और आसान बनाती रहती है। सवाल है कि वे कौन से कारण होते हैं जो कला साहित्य की दुनिया को इस प्रक्रिया से मुक्त नहीं होने देते ? उसे ‘महापौरों’ के आगे नतमस्तक होने को मजबूर किये रहते हैं?


यदि इन सवालों के जवाब बिल्कुल हालिया स्थितियों से तलाशे जाये तो अपने करीब घटने जा रही एक घटना का जिक्र करना ही ज्यादा उचित होगा। वह घटना जो स्वयं मुझे भी कटघरे में खड़ा कर सके। सिर्फ इतने भर से नहीं कि मैं असहमत हूं और उस जगह से अनुपस्थित रहूंगा, बावजूद उसका भागीदार तो हूं ही। स्पष्ट तौर पर कहूं तो वह घटना सम्वेदना, देहरादून का वह कार्यक्रम है जो 18 मई 2024 को 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल में सम्पन्न होने जा रहा है।          


'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' में सम्वेदना का यह कार्यक्रम सम्वेदना की 'अपनी शर्तों' पर हो रहा है कि 1) 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का हॉल तो मुफ्त मिले, 2) और आयोजक के रूप में भी सम्वेदना स्वतंत्र संगठन हो। देहरादून में साहित्य की 'महापौर' बनने की ओर बढती जा रही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' की कोई भूमिका न हो। ज्ञात हो कि सम्वेदना के अंदर यह बहस वर्ष 2023 के शुरुआती माह की उस गोष्ठी से शुरु हुई थी जिसमें फिल्मों पर आयी मनमोहन चड्ढा जी की बेहतरीन पुस्तक को चर्चा के लिए चुना गया था। और उस दौरान ही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' में सलाहकार समिति में मौजूद सदस्यों द्वारा जानकारी दी गई थी कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को हॉल का किराया देना पडेगा। हालांकि सूचना देने वाले साथियों ने साथियों यह बात भी रखी ही थी कि रचनाकरों के कार्यक्रमों को हॉल मुहैया कराने के लिए 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के क्या प्रावधान है वे पूरी तरह नहीं जानते। खैर, वे प्रावधान क्या रहे होंगे इसका खुलासा तो 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को करना चाहिए था जो कि उसने आज तक किया नहीं पर यह स्पष्ट है वर्ष 2023 के अंतिम महीनों में मनमोहन चड्ढा जी की पुस्तक पर चर्चा आयोजित हुई पर जिसकी आयोजक सम्वेदना नहीं साहित्य की 'महापौर' स्वतंत्र रूप से 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' ही थी। यह भी कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं वर्ष 2023 में ही नामचीन लेखक और मार्क्सवादी विचारक लाल बहादुर वर्मा जी की स्मृति में एक कार्यक्रम 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल में ही आयोजित हुआ था जिसके लिए आयोजकों को हॉल का किराया रू 5000/- चुकाना पड़ा था क्योंकि साहित्य की 'महापौर' उस कार्यक्रम का सहभागीदार बनने से बचना चाहती थी। आनंद स्वरूप वर्मा मार्क्सवादी विचारक उस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता थे। अज्ञात सूत्रों के हवाले से यह बात उस समय हवा में थी कि बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स का नौकरशाही चश्मा कार्यक्रम को मार्क्सवादी फ्लेवर होने के कारण 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को महापौर बनने से भी बचाना चाहता है। जबकि यह बात जग जाहिर है कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' तो किसी प्रकाशक की किताबों की बिक्री तक में सहयोग करने के लिए 'महापौर' बनने को उतावली रही है।   


अब सवाल है कि सम्वेदना का 18 मई 2024 का कार्यक्रम 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के कौन से प्रावधान से बिना किराया लिए और 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को महापौर की भूमिका भी अदा न करने देते हुए आयोजित हो रहा है? क्या यह किसी तरह की लूट और प्रलोभन का प्रपंच तो नहीं ?


किये जा रहे सवाल इसलिए बेबुनियाद नहीं है क्योंकि हॉल के किराये के मामले को प्रशांकित करते हुए यह बातें हमेशा दोहराई गई हैं कि सिर्फ सम्वेदना के कार्यक्रम ही नहीं बल्कि कोई भी साहित्यिक संस्था यदि उस हॉल में उपल्बध तिथि के दिन आयोजन करे तो 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को वह जगह बिना किराये के मुहैया करानी चाहिए। किराये मुक्ति के पीछे यह स्पष्ट तर्क है कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण जनता के पैसों से हुआ है। यह तथ्य है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट का हिस्सा होकर सामने आई 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का  निर्माण का टैंडर TOT reference No. 36993223 एवं Document reference No. 3081/Nivida (Garhwal)/125, dated 01/10/2025 को Pey Jal Nigam, Govt of Uttarakhand, के द्वारा कुल Tender Value: Rs. 111000000 के रूप में जारी किया गया था। उसके बाद ही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण कार्य उस जगह शुरु हुआ था जहां देहरादून का आवाम नागरिकता संशोधन कानून के रूप में लगातार धरने प्रदर्शनों के साथ मौजूद होता था।


चोरी-चोरी, चुपके चुपके जिस तरह से सम्वेदना ने अपने कार्यक्रम के लिए इस बार बिना किराये के भी 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल को हासिल किया है क्या उसे देहरादून की उस समस्त साहित्यिक बिरादरी के साथ गद्दारी नहीं मानना चाहिए ?, जो अभी भी निश्चिंत नहीं हो सकती कि भविष्य में यह हॉल उन्हें स्वतंत्र आयोजक रहते हुए फ्री मिलेगा या नहीं?


सम्वेदना से अपने जुड़ाव के नाते यह तो कह ही सकता हूं सम्वेदना की कार्यशैली हमेशा पारदर्शी रही है। आयोजन पहले भी हुए हैं और हर सक्रिय सदस्य को कार्यक्रम से सम्बंधी हर छोटी से छोटी बात तक मालूम रही है। जबकि खुले व्यवहार की सम्वेदना में आयोजन के नाम पर कमेटी बनाने तक की कभी कोई औपचारिकता नहीं की गई। उसके पीछे की सौद्धांतिकी रही है कि औपचारिक कमेटियां साथियों की भागीदारी को सीमित करती है। कोई कम सक्रिय साथी कार्यक्रम को मूर्त रूप देने के लिए अपने सुझाव को सबके सामने रखने से पहले खुद ही सीमित कर लेता है और कमेटी सद्स्योंं को ही महत्वपूर्ण मानता रहता है। लेकिन यह पहला मौका है जब मैं कह सकता हूं कि कार्यक्रम को लेकर औपचारिक कमेटी तक स्थापित हुई। सम्वेदना की कार्यशैली में आ रहे बदलाव क्या किसी तरह के प्रलोभनों की आहट तो नहीं? यह आशंका नहीं उस बाइनरी में चीजों को देखना है जो बताती है प्रलोभनों के झूठ ही लूट तक जाते हैं। यदि इसमें रत्तिभर भी सत्यता हो तो तय है कि भविष्य में देहरादून का साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य अघोषित आपातकाल के भीतर छटपटाने को मजबूर होगा। और तब उसके विरुद्ध संघर्ष करने का वैधानिक अधिकार भी खो चुका होगा। क्योंकि हॉल को किराया मुक्त किये जाने सम्बंधी कोई पारदर्शी नियमावली बनाने की बात को मजबूती से रखने की बजाय सम्वेदना सिर्फ अपने लिए चोर रास्ता बना रही है।


दिलचस्प है साहित्यकारों के बीच राजनैतिक और राजनीति वालों के बीच साहित्यकार दिखने वालों तक को सम्वेदना की यह चोर गतिविधि जायज दिख रही है।


उम्मीद है सम्वेदना के साथी आयोजित कार्यक्रम के विषय "सम्वेदना का साहित्यिक योगदान और आज की चुनौतियां" में ऐसे विषय पर भी खुली चर्चा करने के साथ रहेगे। इस नयी बनती हुई दुनिया में लूट और प्रलोभन ज्यादा बड़ी चुनौतियां है।