Wednesday, April 17, 2024

ललन चतुर्वेदी की कविताएं

इसमें कोई दो राय नहीं कि बढती हुई तकनीक के साथ मनुष्य की तकलीफें कम हो सकती थी और दुनिया ज्यादा खूबसूरत। लेकिन पाते है कि तकलीफें ही नहीं, उन से पार पाने की जटिलताएं भी बढी हैं। कोई एक दृश्य जो साफ दिख रहा होता है, न जाने कितने ही अंधेरे कोने छुपाए रहता है। ललन चतुर्वेदी की कविताओं की विशेषता है कि साफ दिखते दृश्यबंध के साथ साथ, अदृश्य कोनो को भी उजागर कर देना चाहती हैं। इसीलिए जटिलताओं का एक समग्र चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत हो जाता है और छुपने छुपाने की संगति उजागर होने लगती है।

यह ब्लाग ललन चतुर्वेदी की कविताओं से अपने को समृद्ध कर पाया, इसके लिए कवि का आभार।

विगौ



मैं लंबी कविताएं नहीं लिख सकता

         
मैं छोटी- छोटी चीजों से घिरा हुआ हूँ
मेरे आसपास छोटे - छोटे लोग रहते हैं
उन लोगों की दुनिया बहुत छोटी है
उनके लिए छोटी- छोटी समस्याएं भी बहुत बड़ी हैं

वे विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन,योग आदि की बात नहीं करते
शेयर बाजार की चर्चा तो वे कर भी नहीं सकते
वे समय पर जगने  के लिए घड़ी में अलार्म लगाने वाले लोग नहीं हैं
वे सूरज की गति से समय को मापने वाले लोग हैं
वे पेड़ों की छाया में सुस्ताने वाले लोग हैं
किसी ठेले पर खड़े-खड़े चाय-बिस्किट से हलक को तृप्त करने वाले लोग हैं

हर सुबह एक चौराहे पर टोकरी-कुदाल लेकर वे खड़े हो जाते हैं
धूप के चढ़ते ही उनके चेहरे पर छाने लगती है उदासी
कुछ को काम मिलता है और कुछ

भारी कदमों से लौट जाते हैं अपनी झोंपड़ी की ओर
उन्हें दोपहर के पहले घर लौटते हुए देखना

हमारे समय की खौफनाक त्रासदी है

उनमें से कुछ शाम में गीत गाते हुए लौटते हैं
बाजार से आटा- दाल और अपने बच्चों के लिए पकौड़े लेकर
मैं ठिठक कर उनके गीत सुनना चाहता हूँ
मेरे लिए यह सबसे बड़ा म्युजिक कंसर्ट है कि
आज उनके घर में चूल्हा जल सकेगा


रोज ऐसे दृश्यों से दो-चार होते हुए
मेरे सामने ऐसा कोई नायक उपस्थित नहीं है
जिसकी गाथा लिखी जाए
इन छोटे लोगों का दुःख भी कहाँ ठीक से अंकित कर पाता हूँ
बस, संक्षेप में उनका हालचाल आपतक पहुँचाना चाहता हूँ ।

               *****


चीजों का सुलभ होना ही दुर्लभ होना है


जब लोग कहते हैं-
अब बहुत आसान हो गया है सब कुछ
तब मेरे चेहरे पर तिरने लगता है दुख
तमाम अकादमिक डिग्रियां क्यों नहीं पढ़ पातीं हमारे  दुख
ताक़तें इतनी निर्बल कि किसी गिरे हुए  को उठा नहीं सकतीं
महंगी तो नहीं होती हॅ़ंसी लेकिन लोग उसका भी मोल वसूल लेते हैं
किसने किसी गरीब की अर्जी लगाई मुफ्त में न्याय की खातिर
क्या पढ़ने लिखने का मतलब  शातिर हो जाना है

वैसे प्रेमी आसानी से दिलों पर हो रहे हैं काबिज जो प्रेयसी से मिले लाल गुलाब को स्वयं का  घोषित कर देते हैं
और आंखों में आंख डाल महबूबा को बेशर्मी से भेंट करते  हुए
दिखाते हैं चांद - सितारे के सपने
ज़माना ऐसे आशिकों की दरियादिली पर तालियां बजाता है
इधर बावरी  प्रेमिका झूम- झूम कर नाच रही है  पूरे जग में  पीट रही है ढिंढोरा
मेरे आशिक ने मुझे सोना का नथिया दिया है
वह कभी नहीं समझ पाएगी चीजों का सुलभ होना ही दुर्लभ होना है।

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काल के कपाल की अबूझ लिपियाँ

कितनी हलचलें दर्ज हो रही हैं लगातार

कुछ स्मृतियों में धँस चुकी हैं कील की तरह
जिनमें जंग लगने की गुंजाइश नहीं हैं जीवन पर्यन्त

हवा समय - समय पर  राख में छिपी आग को भड़का देती है
दिखता है सब कुछ जलता हुआ,धुंआ-धुंआ
यहाँ तो सन्नाटा पसरा है अन्तश्चेतना पर
और तुम पूछते हो क्या हुआ ?

बिकाऊ -फेंकाऊं चीजों के दिनों में
जरूरी सवालों से कतराने लगे हैं लोग
दर्द की भी कोई मियाद होती है क्या
असमंजस में पड़ा मन बार- बार पूछता है


अनेक हृदयद्रावक घटनाएं दफ़न हो जाती हैं विस्मृति के गर्भ में
जैसे जीभ भूल जाती है पाँच-दस मिनट में चाय का स्वाद

समय लगातार लिख रहा है अबूझ लिपियों में

एक साथ जय- पराजय की अनेक कथाएं
किसकी जय और किसकी पराजय ?
हम अपनी ही व्यथाओं में व्यस्त लोग
इनसे हैं बेखबर, लापरवाह
इन्हें पढ़ने की कोशिशें करने वाले भी
क्यों हो रहे  हैं लगातार नाकाम ?

एक चमकदार विज्ञापन
क्षण भर में कर देता है सुर्ख़ियों को विस्थापित
बहुत गझिन है यह भ्रम जाल
हम समाते जा रहे हैं एक अंतहीन सुरंग में
कैसा कोहरा है कि सूझ नहीं रहा हाथ को हाथ
यहाँ पास में बैठे आदमी का चेहरा भी अपठनीय है

असत्य भी पूरे गर्व के साथ हो सकता है  विराजमान
तस्दीक कर रहे हैं चौराहे पर चस्पां  विज्ञापन

केवल किताबों को पढ़कर घोषित मत कीजिए 

किसी को  ज्ञानी- विज्ञानी
मत समझिए किसी को भाग्य विधाता
बहुत जरूरी है पढ़ा जाना

काल के कपाल पर निरंतर अंकित हो रहा मनुज का भविष्य।

 

            ****


इंटरनेशनल एयरपोर्ट


मुग्ध हूं
पांव जमीन पर ही हैं
पर यकीन नहीं हो रहा है
निगाहें आसमान में हैं
अद्भुत वास्तुशिल्प का नमूना देख रहा हूं
कलाकृतियों से सजाया गया है टर्मिनल - टू
कृत्रिम झरने से जल गिर रहा है कल-कल
कभी धरती को देखता हूं
कभी गगनचुंबी इस इमारत को
भूल गया हूं पत्नी भी साथ हैं
देखकर इंद्रप्रस्थ का वैभव
दुर्योधन भी यहां आता तो एक बार चकरा  जाता

यात्रियों की सुरक्षा जांच जारी है
एक मां दूध का पाउडर निकाल
प्रस्तुत कर रही है सुरक्षाकर्मियों के समक्ष
नोट कर लिया गया है उसका पीएन‌आर नंबर  और मांग लिया गया है  मोबाइल नंबर
मैं देख रहा हूं यह दृश्य मूक-निश्चल
गांधी बाबा यदि भूले-भटके पहुंच जाते यहां
कैसे छिपाते अपनी लाठी
करनी पड़ती स्थगित उन्हें अपनी यात्रा

पत्नी झरने के नीचे बैठ गई हैं विशिष्ट मुद्रा में
ले रही हैं  सेल्फियां धराधर
अचानक ध्यान आकृष्ट करती हैं तेज स्वर में -
आओगे भी या ताकते रहोगे आकाश
एक सेल्फी तो ले लो संग -साथ
स्टेटस बदलना ज़रुरी है उड़ान भरने के पहले।

             *****


दृश्य में जीवन ढूँढते लोग

यहाँ कुछ लोग आठ के ठाठ में व्यस्त हैं
वे रात को दिन और दिन को रात बनाने वाले लोग हैं
उनके लिए निर्धारित समय से चार घंटे बाद होता है सूर्योदय

ऐसे ही लोगों से बनता है यहाँ का नागर समाज
जहाँ से गढ़ी जा रही हैं सभ्यता की नई-नई परिभाषाएं
एक दिन असभ्य घोषित किये जा सकते हैं
इस साँचे से बाहर के लोग
यहाँ फोन करने के पूर्व संदेश भेजकर लेनी पड़ती है इजाजत


यहाँ चमचमाती इमारतों के आगे-पीछे है चकाचौंधी रोशनी
यहाँ सपने साकार होने की लुभावनी गारंटी है
यहाँ घंटों साथ रहने के बावजूद लोग एक-दूसरे के लिए बेगाने हैं
क्या हुआ,हम तो इस शहर के दीवाने हैं
यहाँ लोग मिलते हैं,बिछुड़ते हैं, टूटते हैं

और फिर से जुट जाते हैं जीवन के समर में
यहाँ शनि या रविवार को खुशियों को आमंत्रित किया जाता है

इस मेले में आने के बाद हम भूल जाते हैं घर  के रास्ते
यहाँ लोग जीते हैं,सुरा में ,सौन्दर्य में, आजादी में
यहाँ अस्वीकार्य है किसी प्रकार का हस्तक्षेप

यहाँ सर्वत्र सुनाई देता है निजता का राग

यहाँ केवल महसूसा जाता है बोला नहीं जाता
ध्वनियाँ स्वत: होंठों से  हो जाती हैं वापस 
यहाँ महाप्राण ध्वनियाँ हो चुकी हैं लगभग लुप्त
शब्दों में नहीं, अक्षरों में होता है संबोधन

जिसे हम रोज आते- जाते देखते हैं
जो रोज करता है हमें नमस्कार
उसका हम कभी नहीं पूछते समाचार
वह भी देखता है हम सब अपरिचितों को आते- जाते
किसी की कोई छवि नहीं बनती किसी के मस्तिष्क में
यहाँ  लोग  दृश्यों में  ढूँढते हैं जीवन
जबकि इस दृश्य का प्रत्येक लघुतम अंश

अचीन्हा और अदृश्य होने के लिए अभिशप्त है।

 

       *****


मूर्ख युद्ध नहीं करते

एक युद्ध लड़ा जा रहा है सीरिया में
एक अफगानिस्तान में ,एक  युक्रेन में
जहां युद्ध नहीं है वहाँ भी लड़ा जा रहा है युद्ध
अनेक देश  लड़ रहे हैं अपने - अपने युद्ध

कहते हैं युद्ध मूर्खता है 
पर मूर्ख कभी नहीं लड़ते युद्ध
सभी युद्धों की अगुवाई करते हैं प्रबुद्ध
जो युद्ध की घोषणा करता है
वह युद्ध में शामिल नहीं होता
वह केवल बतलाता है कि युद्ध उसके  लिए नाक का प्रश्न है,
युद्ध उसके देश की शान का और उसके
कोटि- कोटि जन के  जान का प्रश्न है

हालांकि युद्ध कोई मुद्दा नहीं
परंतु युद्ध के लिए अनेक मुद्दे हैं
युद्ध के घोषकों के अपने तर्क हैं
बाघ का पुरातन आरोप है -
बकरी नाव में धूल उड़ाती है

हम युद्ध से थोड़ा सा दूर हैं , दो क़दम दूर
युद्ध हमारे लिए मात्र किसी दूर देश की ख़बर है
हम बाख़बर रहते हुए बेखबर हैं

एक खौफनाक घटना घटती है राजधानी में
हम टीवी पर देखते हैं
थोड़ी देर के लिए हम हो जाते हैं चुप
लग जाते हैं दैनिक कामकाज में
घटना का खबर में बदल जाना 
हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है

जानते हैं कि दिल्ली दूर नहीं है
फिर भी,मन को समझाते हैं कि दिल्ली दूर है

एक हत्या हो जाती है हमारे प्रांत में
एक राजनेता के लिए यह विधि- व्यवस्था का प्रश्न है
पड़ोस में हो जाती है कोई अनहोनी
तब भी झट से बंद कर लेते हैं किवाड़
हम दूसरे के फटे में टाँग नहीं अड़ाते

हम ग्लोबल गाँव के शिष्ट, संभ्रांत नागरिक‌ हैं
हम रक्षात्मक खेल खेलने वाले खिलाड़ी हैं
हमें शायद  मालूम नहीं कि
अगली बॉल पर हो सकते हैं हम भी आउट
अब इसे मासुमियत कहूं या मान लूं अपनी कायरता
हम लाख चाहें ,बच नहीं सकते
हमें शामिल कर लिया जाएगा युद्ध में
कोई लड़ने नहीं आएगा हमारे हिस्से का युद्ध
हम भी अनेक मोर्चे पर लड़ रहे हैं
क्या कोई देख सकेगा हमारा युद्ध?
       *****


देह का अध्यात्म
वह सद्यस्नाता  स्त्री
जिसके कुंतल से टपक रहे हैं बूंद-बूंद जल
एक झटके से झाड़कर बाल
खड़ी हो गई है आईने के सामने
उसने विदा कर दिये हैं मन के सारे शोक -संताप
स्थितप्रज्ञ सी निहार रही है
एक -एक कर अपने अंग
अपनी काली आंखों में दे रही है अतिरिक्त काजल
सुर्ख कपोलों पर लगा रही है अंगराग
नखों पर दे रही है जतन से लालरंग
बालों में बांध चुकी है सफेद पुष्पों का जूड़ा
पहन चुकी है मनपसंद रेशमी परिधान
एक बार  देखती है पीछे मुड़कर
शायद भूलने को अतीत
सांसों में भरना चाहती है वर्तमान
फैल गई है उसके होंठों पर मुस्कान
नखशिख पर्यन्त प्रकीर्ण हैं विविध रंग
चमक रहा है सिन्दूर तिलकित भाल
ज्यों नीलगगन में उतर आया हो इन्द्रधनुष
कहां है कोई क्लेश - कालुष्य
कहां है आत्मा, कहां है वैराग्य
कहां है देह के बिना इनका अस्तित्व
जिस दिन मिलना होगा , मिट्टी में मिल जाएगी देह
देह ही है सत्य ,देह ही है प्रेय,
बिल्कुल नहीं है हेय यह कंचन देह
जब तक है देह तब तक है नेह
नहीं सुनना कोई प्रवचन उपदेश
कोई गुरु नहीं,कोई देव नहीं,कोई पोथी नहीं
एक स्त्री ही समझा सकती  है देह का अध्यात्म ।

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वी आई पी लाऊंज


कुछ शब्द जीभ पर आसानी से नहीं चढ़ते
जैसे अति विशिष्ट व्यक्तित्व
भारी भरकम शब्दों में लगती है शिष्टता की न्यूनता

उतरना जरूरी हो जाता है विदेशी भाषा में
शब्दों में भरने के लिए सभ्यता ,शिष्टता
देने के लिए अतिरिक्त वजन
संक्षिप्तता समय की मांग है

वीआईपी लाउंज में घुसने के पहले
बाबा तुलसीदास का कवित्त याद आया -
"हौं तो सदा खर को ही सवार , तेरे ही भाग गयंद चढ़ायो"
यह मेवा सेवा का प्राप्य है
बिना डेबिट कार्ड यहां प्रवेश निषेध है
जेब में एक डेबिट कार्ड हो तो दो रुपए में
खाया जा सकता है तरह- तरह के व्यंजन
यहीं आकर पता चला
मुफ्त का अन्न आदमी को बना देता है विपन्न
यहीं आकर समझ में आ‌यी बात
गरीबों से कहीं अधिक भूक्खड़  हैं धनवान

हम स्लीपर क्लास के यात्री निम्नमध्यवर्गीय
बैठ ग‌ए हैं साहब- सुब्बे के साथ
वीआईपी लाउंज में चख रहे हैं तरह तरह के खाद्य और पेय पदार्थ
समझ रहे हैं  विकास का निहितार्थ

एक ही डेबिट कार्ड है जेब में
लोगों के पास हैं क‌ई कार्ड
(अब यह अचरज की बात नहीं)
सपरिवार कर रहे हैं उपयोग और लगा रहे हैं भोग


सोच रहा हूं, अगली यात्रा के पहले
पत्नी के लिए बनवा दूंगा कार्ड
बहुत खल रही है उनकी अनुपस्थिति
वह अकेले बैठी हैं प्रतीक्षालय में।

         *****


एक्सप्रेस वे

 

पुणे - मुंबई एक्सप्रेस वे पर हूं
लग्जरी वाहन वहन कर रहा है मुझे
यह भी किसी  पुण्य से कम नहीं है

जगह- जगह सीसीटीवी कैमरे हैं संस्थापित
भूल से भी कोई आ जाए दुपहिया वाहन
तो हो सकती है दंडात्मक कार्रवाई

क्या अभिराम दृश्य है
सांवले - सांवले बादल कर रहे हैं स्वागत
पर्वतों पर घिर आए हैं मेघ
अब प्रियतमा को संदेश पहुंचाने का नहीं सौंपूंगा इन्हें दायित्व
वीडियो काल पर हाजिर हो चुकी हैं खुदमुख्तार
बोल रहीं हैं - अकेले मजे ले रहे हो बर्खुरदार
इच्छा हो रही है तुम्हारे साथ चलूं एक्सप्रेस वे पर
हाथों में डालकर हाथ

मैं थोड़ी देर के लिए मौन हो जाता हूं
यहां कोई पदयात्री नहीं दिख रहा है दूर- दूर तक
सोचा नहीं था एक दिन सड़कें आरक्षित हो जायेंगी
और लोग महसूस करेंगे असुरक्षित ।

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बासी पूरियां
जो अघाए हुए थे, उन्हें सबसे पहले परोसा गया

लगातार नजर‌अंदाज किया गया उन्हें
जो अहले सुबह से डटे हुए थे अपने कर्तव्य पर

पंगत के लिए उमड़ चुका था लोगों का हुजूम
एक के उठते दूसरा बैठने की प्रतिस्पर्धा में शामिल थे

जो दिन भर के भूखे थे
वे अपना धैर्य चबाते हुए प्रतीक्षा में खड़े थे
ऐसा कभी महसूस नहीं किया गया कि
उनके बैठने के लिए भी होनी चाहिए कोई जगह

वे सालों भर श्रम का साग-सत्तू खाने वाले लोग थे
जो सपरिवार करते थे इन्तज़ार एक दिन के भोज का
वे कोई भिखमंगें नहीं थे, पेशेवर श्रमजीवी थे
जो करते थे विश्वास अपनी भुजाओं पर
सदियों से  निभा रहे थे निर्धारित वर्ण व्यवस्था में  कारगर भूमिका
उनके देर से आने या सामान नहीं पहुंचाने पर रुके रहते थे मंगल या श्राद्ध कार्य
छोटी मोटी भूलों पर वे अकसर बनते रहते थे यजमानों के कोपभाजन

गांव का एक -एक घर होता था उनका यजमान
अचरज यह कि सबके सब ने उन्हें घोषित कर रखा था शैतान
गांव की चौहद्दी के बाहर अकेले खड़ी होती थी उनकी झोंपड़ी 
उन्हें पंगत में बैठकर खाने की अनुमति नहीं थी
वे ताकते रहते थे यजमान का मुंह देर रात तक खड़े होकर

वे लाते थे अपने घर से टिनही बरतन,कटोरा
सारी पंगतों के उठ जाने के बाद
एक निश्चित दूरी से लोग परोस देते थे उसी में भोज- सामग्रियां
आधे -अधूरे बचे -खुचे जो भी मिले वे लेकर लौट जाते आधी रात
बच्चे जब सुबह उठते, वे बताते कि  बहुत देर से शुरू हुआ था भोज
वे बताते थे आंखें फाड़कर,उमड़ पड़ा था लोगों का हुजूम
वे शब्द टटोलते थे पर नहीं मिलते थे उन्हें कोई उपयुक्त शब्द
जो दे सकें उनकी भावनाओं को सही स्वर
वैसे ही जैसे पंगत में नहीं मिलती थी उन्हें जगह
वे बतलाना चाह रहे थे  बच्चों को अपना दुख
और बच्चे दांतों से खींचते हुए बासी पूरी
कर रहे थे शिकायत  - बाबू ! बुंदिया नहीं बनी थी क्या ?

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संपर्क:

ललन चतुर्वेदी

lalancsb@gmail.com


Sunday, April 14, 2024

मन की उधेड़बुन

मोनिका भण्डारी शिक्षिका हैं और उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद में रहती हैं। यह वही उत्तरकाशी है जिससे हमारा परिचय एक समय में रेखा चमोली की कविताओं से हुआ और फिर उस परिचय को सपना भट्ट की कविताओं ने गाढा किया।   


मोनिका भण्डारी की
कविताओं से मेरा परिचय हाल ही में फेसबुक के माध्यम से हुआ। अपने तरह की ताजगी से भरी उनकी कविताओं ने जिन चीजों की ओर ध्यान खींचा, खासतौर पर वह शिल्प की परिपक्वता रही, जो निजता के स्तर पर अर्जित अनुभवों को सार्वजनिक बना दे रहा। इन कविताओं में प्रेम की अविकलता नहीं, उम्मीदों और आशवस्ति के उदात्त भाव बिखरे नजर आते हैं। ज्यादातर कविताएं शीर्षक विहीन हैं। इस तरह से ये कविताएं पाठक को भी स्वतंत्रत तरह से अपना पाठ रचने की छूट दे रही हैं। 

विगौ

मोनिका भण्डारी की कविताएं  

एक

हजारों उलझनों के बीच
जब जीवन निःसंग सा लगने लगता है
और रिक्तता घेर लेती है
ऐसे में
कुछ आवाजें बहुत आश्वस्त लगती हैं

बदलाव जो होने जरूरी हैं
बहुत भारी होते हैं कई बार
अभिभूत नहीं,असंतुलित कर देते हैं स्वतः ही
ऐसे में
हाथों पर कोई हाथ दिलासा लगते हैं

हृदय कितनी पीड़ाएं सह लेता है कुशलता से
किंतु छले जाने पर
घनघोर निराशा के क्षणों में
जब चुन लेता है पाषाण होना
ऐसे में
कोई हल्का सा प्रेमिल भाव
भरपूर नमी बनाए रखने जैसा लगता है

 

 दो 

मन रुका रह गया
देह चली आई
देह में मैं नहीं थी
देह रिश्तों की ट्रेडमिल पर दौड़ती रही
लेकिन जिंदगी थमी सी रही
कुछ चीजें बस शुरू हो जाती हैं
लेकिन खत्म होने पर 
एक मुकम्मल कहानी सा क्लोजर मांगती हैं

 

  

तीन 

मन जब भी
कातर हुआ
अनगिनत मूक संवाद ,
और स्नेह आलंबन भी
आश्वस्त न कर पाए,
जबकि दूर से दिखती
सुंदर चेहरों की हंसी
अच्छी लगी
लेकिन कभी उन चेहरों के
मन के पास से गुजरी तो
निशब्द हो उठी
उदासी छुपाने के उपक्रम में
खुशगवार दिखते चेहरों की
तमाम गर्द और खलिश बिखर गई
दर्द समेट लेने के यत्न में
उन्मुक्त हंसी का निहायती बनावटीपन दिख गया
कितनी पक्की रंगरेज बन जाती हैं ये
अपनी देह और मन को बेतरह अचाहे रंगों से ढक लेती हैं
बस नाम और चेहरे बदल जाते हैं
लेकिन कहानी,अनजानी नहीं होती
हमारी पीड़ाएं भी कितनी मिलती जुलती होती हैं ना!

 

चार

प्रेम में पगी स्त्रियाँ
मन के कठिन दिनों में भी
दिल की ज़मीन को
घास पर फिसलती ओंस
की तरह
नम बनाये रखती हैं
खुश्क नहीं होने देती
बूँद बूँद बरसती उदासी
और गहरी खामोशी में भी
किरणों की उजास सी
बिखर जाती हैं
प्रेम में पगी स्त्रियाँ
प्रेम से विश्वास नहीं उठने देतीं
बेशुमार छ्ले जाने पर भी।

 

पांच 

मन की उधेड़बुन
देह की तपन
सहोदर हो गए जैसे
अकथ दुःख
पूरी देह का नमक
आंखों को सौंप
झरता रहा अनवरत
सुख उस तितली सा रहा
जिसको पाने के लिए
हथेली आगे की तो
फुर्र से उड़ गया
मुसाफ़िर जीवन की यात्राएं
अनवरत जारी रहीं
कुछ यात्राएं मंजिल पाने को नहीं होती
चलती जाती हैं चुपचाप
कि चलते जाने के क्रम में
चुप्पियां छूट रही हैं पीछे


मैं जानती हूं


मेरी बच्चियों
मैं जानती हूं
नहीं बताता कोई तुम्हें
सही गलत
प्रेम या उत्पीड़न के बारे में
सुनो...
अपने शरीर व मन पर सिर्फ
अपना ही अधिकार रखना
अपने संरक्षण के लिए
सहज और असहज स्पर्श की
पहचान रखना
प्रेम खूबसूरत अनुभूति है
पर
प्रेम करना या पाना
बिलकुल अलग है
दैहिक आवेग से
कभी आहत हो भी जाओ यदि
तो इसे बेबसी न समझना
निडर,संयमित जीवन जीना।
सजग रहना ताकि
सुरक्षित रह सको।
आकर्षण की अभिव्यक्ति
संयमित रखना
विवेकी बन निर्णय लेना
तुम्हारी मर्यादा ही
मर्यादित रखेगी सबको।
बातें साझा करना जरूर
झिझक न पाल लेना।
सही गलत की कोई परिभाषा  नहीं,
परिस्थितियां ही सहायक हैं
इन्हें पहचानने में
तुम भी पहचानना ।


Thursday, April 4, 2024

रंगमंच की दुनिया का सिलक्यारा मिशन

 







उत्तर नाट्य संस्थान एवं दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित नाट्य समारोह का आखिरी नाटक 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुआ। नाट्य समारोह की शुरुआत विश्व रंगमंच दिवस, 27 मार्च 2024 को हुई थी। समारोह का आखिरी नाटक-अन्वेषक दून विश्वविद्यालय के रंगमंच विभाग के विद्यार्थियों द्वारा खेला गया। वर्ष 2023 के लिए संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित किए गए डॉ राकेश भट्ट के निर्देशन में खेले गए इस नाटक का यह दूसरा प्रदर्शन था। मई 2023 में भी दून विश्वविद्यालय में इसको मंचित किया गया था। कहानीकार और नाट्य लेखक प्रताप सहगल के द्वारा लिखा गया नाटक “अन्वेषक”  प्राचीन भारतीय इतिहास की विसंगतियो को केंद्र में रखकर रचा गया है। महान खगोलविद और वैज्ञानिक आर्यभट के अनुसंधान- पृथ्वी चलायमान है, के प्रति पुरोहितों द्वारा की गई अवहेलना इस नाटक का कथा बिंदू है। 20 वीं सदी के आखरी दशक में प्रकाशित हुए इस नाट्य आलेख पर बात करने से पहले मंचन की खूबियों-खामियों पर बात कर ली जाए।

कुछ छोटी मोटी तकनीकी खामियों के बावजूद 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुए “अनवेषक” की प्रस्तुति को संतोषजनक कहा जा सकता है। मंचन में यदि कोई व्यवधान बन रहा था तो वह था नाटक का पर्श्व संगीत- जो अखरने वाला रहा। अभिनय के लिहाज से कहा जाये तो पात्र उस दायरे में रहे जिसे लेखक के रचे हुए के साथ संगत बैठाते हुए निर्देशक ने परिकल्पित किया। फिर चाहे नट-नटी (गणेश गौरव, सोनिया नौटियाल) के किरदारों का चुलबुलापन हो और चाहे संयत और धीर गम्भीर व्यवहार में राजा बुधगुप्त ( अरुण ठाकुर) या आर्यभट ( कपिल पाल) का अभिनय।      

निर्देशक की परिकल्पना के पहलुओं पर विचार किया जाये तो पाएंगे कि लेखक ने जिन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर नाटक लिखा, निर्देशक ने उनकी प्राप्ति के लिए ही हर सम्भव स्थितियों को नाट्य तत्वों में पिरोने की कोशिश की। स्पष्ट है कि लेखकीय उद्देश्य उस विचार की साम्यता में हैं, जो अतीत के गौरव गान को ही राष्ट्रीयता और देशप्रेम मानता है। वह एक ऐसा विचार, जो जब राजनीति का चोला पहनता है तो दुनिया के सारे ज्ञान और किसी भी अनुसंधान को सिर्फ अपने धर्मग्रंथों में तलाशता है, बल्कि जिद्द की हद तक धर्मग्रंथों को ही प्राथमिक स्रोत माने रहता है। बदलती हुई दुनिया के मूल्यबोध उसके आड़े आते हैं तो शुरु में तिलमिलाता है। लेकिन जब यह जान लेता है कि समाज उन बदले हुए मूल्यबोध से इतर व्यवहार नहीं करेगा तो इस तरह पैंतरा बदलता है कि मूल्यबोधों को स्वीकारने की बजाय  प्रतीकों के माध्यम से खुद को भी उनका हिमायती होने का झूठ रचता है। उसका झूठ पकड़ में न आए इसलिए प्रतीकों के झंडे बनाकर लहराने लगता है। मसलन, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ने आजादी की जो कल्पना की, उसके प्रति नफरत भरा होते हुए भी राष्ट्र भक्ति का झूठ रचने के लिए वह पहले भगत सिंह को पगड़ी पहनाता है और फिर उसे देव स्वरूप पूज्य बनाता है। अहिंसा के विचारक गांधी की हत्या करता है, लेकिन झूठ को रचने के लिए चश्मे को लहराते हुए ही गांधीवाद का पूजारी दिखना चाहता है।   

प्रताप सहगल का नाट्य आलेख भी ऐसे ही झूठ के साथ वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न आर्यभट की उस खोज को कथा में जगह देता है जिसने धार्मिक मान्यताओ को चौनौती दी थी। वे मान्यताएं, जिनका स्पष्ट मत था कि पृथ्वी स्थिर है और रात दिन की चक्रियता दैवीय चामत्कार है। ग्रहणों की स्थितियां राक्षसों के उत्पात हैं और उनके उपाय के लिए ही दैवीय उपासना और दान दक्षिणा के उपक्रम आवश्यक हैं।

चूंकि नाटक का विषय यह नहीं है कि वह उन कारणों को जानने के लिए लिखा गया है कि आखिर क्यों और कैसे एक महत्वपूर्ण अनुसंधान की पुस्तक पूरे इतिहास में विलुप्त रही, इसलिए यह आलेख भी उन स्थितियों को नहीं उठा रहा। जबकि यह कौन नहीं जानता कि झूठ को फैलाते रहने वाले धर्मग्रंथ ही नहीं, उनकी टिकाएँ तक सुरक्षित तरह से संरक्षित रहीं हैं। इसलिए यह प्रश्न विचारणीय होते हुए भी मुझे छोड़ देना पड़ रहा है कि क्यों ऐसा हुआ कि सिर्फ दो दो पंक्तियों में लिखे गए 121 श्लोकों की पुस्तक आर्यभटीय जो गणित और ज्योतिष विज्ञान के जटिल विषयों को सूत्रबद्ध किये थी, सैकड़ों सालो तक विलुप्त रही ? मेरी यह टिप्पणी सिर्फ उतने की ही बात करने के लिए बाध्य है जो मंचित हुए नाटक “अन्वेषक” का घटनाक्रम है।    

दिलचस्प है ऊपर के सवालों को दरकिनार करते हुए ही नाट्य आलेख उस गौरवगान का आख्यान बनने के साथ है जो “अतीत के सुवर्ण काल” को स्थापित करने वाला है। नाटक में आर्यभट को गुप्त शासक बुधगुप्त के समर्थन से अनुसंधान करते दिखाया जाना उसी अतीत को गौरवांवित करना है जो धर्मशास्त्रों पर टिकी मान्यताओं को ज्यादा मुस्तैदी से प्रसारित करने वाला हुआ। इतिहास गवाह है कि राजदरबारों के समर्थन कला साहित्य की उन गतिविधियों के लिए रहे, जो या तो सीधे धर्मग्रंथों की मान्यता को स्थापित कर रही थी, या फिर कुछ नया करते हुए इस बात का ध्यान रखती थी कि समाज में फैले अंधकार को चुनौती न देती हो। गुप्त काल के एक शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों के बारे में इतिहास से जानकारी मिलती है। “तथाकथित रूप से कवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध, परन्तु दरअसल 12वीं सदी में लिखी गई 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक जाली पोथी के एक श्लोक में भी इन नौ रत्नों की सूची है- धन्वंतरि क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि । यानी पाटलिपुत्र में पूजित ज्ञान को प्रतिष्ठित करने वाले गुप्तकाल के ही के प्रथम महान गणितज्ञ आर्यभट का नामोल्लेख, नहीं है! क्या यह भारतीय विज्ञान के प्रथम पौरुषेय कृतित्व को और उसके रचनाकार को लोक-परम्परा से ही बहिष्कृत कर देने वाला प्रयत्नपूर्वक किया गया प्रयास नहीं है?” (गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998) । भारतीय गणित के इतिहास की व्याख्या करने वाले विद्वान गुणाकर मूले स्पष्ट लिखते हैं, “आर्यभट के भूभ्रमण वाद पर हमला करने वाले पहले ज्योतिषी वराहमिहिर (मृत्यु : 587 ई.) हैं। आर्यभट के भूभ्रमणवाद पर कठोर प्रहार करने वाले दूसरे व गणितज्ञ-ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त हैं।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998)। आर्यभट द्वारा प्रतिपादित भूभ्रमण का सिद्धांत पुरोहित-वर्ग के लिए एक नई चुनौती थी। “'परमभागवत' गुप्तों के शासनकाल में यह वर्ग काफी बलशाली बन गया था। वेदों और धर्मशास्त्रों के हवाले देकर अचला पृथ्वी का जो लोकविश्वास कायम किया गया था उसे टिकाए रखने में सबसे ज़्यादा हित पुरोहित वर्ग का ही था। इसलिए समाज के इस प्रभावशाली वर्ग ने आर्यभट के भूभ्रमणवाद के उन्मूलन के लिए हर संभव प्रयास किया हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।““(गुणाकर मूले, वही)     

नाटक स्पष्टत: दिखाता है कि अन्वेषक आर्यभट ने अपनी पुस्तक “आर्यभटीय” बुधगुप्त को सौंपी। यद्यपि तथ्य है, “आर्यभट अपनी कृति में किसी भी राजा या सामंत का उल्लेख नहीं करते हैं। समकालीन राजनींतिक परिस्थितियां भी अनुकूल नहीं थी। आर्यभट का जन्म 476 ई में हुआ।“ (गुणाकर मुले, महान गणितज्ञ- ज्योतिशी आर्यभट, राजकमल प्रकाशन, पेज 136)। फिर भी यदि नाटक की कथा को यदि सत्य मान लिया जाये तो फिर सवाल है कि ज्ञान विज्ञान को संरक्षण देने वाला राजदरबार ऐसे महान अनुसंधान की पुस्तक को गुप्त शासन के क्षेत्र में क्यों संरक्षित नहीं रख पाया ? यह भी इतिहास है कि “सुदूर दक्षिण भारत में, मुख्यतः मलयालम लिपि में, टीकाओं सहित आर्यभटीय की कई हस्तलिपियां उपलब्ध थीं। उनमें से कुछ हस्तलिपियां यूरोप के संग्रहालयों में भी पहुंच गई थीं, मगर उनका अध्ययन और प्रकाशन नहीं हो पाया था, और न ही उनके आधार किसी यूरोपीय विद्वान ने आर्यभट प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया था। डा. भाऊ दाजी प्रथम यह काम किया लाड (1824-74 ई.) ने। उन्होंने 1865 ई. में केरल की यात्रा करके वहां मलयालम लिपि में आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पोथियां खोजीं। उनका अध्ययन करके भाऊ दाजी ने आर्यभट और आर्यभटीय के बारे में एक खोजपरक निबंध तैयार किया।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, मार्च-जून1998)।   



स्पष्ट है प्रताप सहगल के नाट्य आलेख में इंन तथ्यों की अवहेलना के कुछ निहितार्ठ हैं। यह नाटक अतीत के गौरवगान के लिए ऐसे दृश्य रचता है कि राजा बुधगुप्त और उसके दरबारी बार बार ही आर्यभटीय सिद्धांतों को लागू करने के लिए उद्यत हैं। यहाँ तक कि आर्यभट की स्थापना का विरोध करने वालों को कारागार में डाल देते हैं। ऐसा करते हुए प्रताप सहगल न सिर्फ अतीत का गौरव गान करने वाली राजनीति को मद्द करते है बल्कि आर्यभट की वैज्ञानिक उपलब्धि को भी अतीत की उसी गौरवशाली परम्परा का हिस्सा बना देने का रास्ता सुझाते है जिसका सारा कार्यव्यापार ही धार्मिक गतिविधियों को सर्वोपरि मानने वाला रहा है।

अतीत के गौरव गान के उद्देश्यों से तैयार प्रताप सहगल की यह स्क्रिप्ट राकेश भट्ट के निर्देशन में गुप्त काल के उस दौर को आधुनिक मूल्यबोध के उन रंगों से सजा देना चाहती हैं कि पुरातनपंथी वह दौर किस दर्शक की चाह न हो जाए जिसमें विद्ध्वत समाज की एक कुलपति स्त्री हो। पांच विद्वानों की उस सभा में दो स्त्रियां हो और उनमें से एक सभा की अध्यक्षता करे। तो कैसे नहीं वह पुरातनपंथी राजदरबार आज की जनता की चाह होने लगेगा। इतिहास की विकृति की ऐसी गौरव गाथाएं दून रंगमंच में पिछ्ले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढी हैं। दिलचस्प है कि ऐसी सभी गतिविधियों में इतिहास के नायकों की वास्तविक भूमिका को चौपट करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई। फिर न तो वहां नागेंद्र सकलानी बच पाए हैं और न वीर चंद्र सिंह गढवाली। दून रंगमंच की यह चाल उस सिल्क्यारा मिशन की चाल है जो न तो सुरंग निर्माण के औचित्य पर बात करना चाहती है, न सुरंग में मजदूरों के फंस जाने के कारणों को तलाशना चाहती है और न ही उस श्रम का सम्मान करना चाहती है जिसके प्रतिफल से फंसे हुए मजदूरो को जीवन मिल पाया है। उसका उद्देश्य तो सिर्फ पैसा, पुरस्कार, प्रतिष्ठा और शासन प्रशासन में घुसपैठ को महत्व देना हुआ है। 

यदि अपने आस पास के परिदृश्य पर निगाह डालें तो स्पष्ट देख सकते हैं कि देश के पैमाने में जारी हिंदी रंगमंच की दुनिया का यह सिलक्यारा मिशन ही कभी “राम की शक्तिपूजा” में शरण लेता है तो कभी प्रेमचंद के “गोदान” में।